Saturday, November 15, 2008

क्यों नहीं निकाल सकता दलित वर्ग घोडे पर बिंदौली

लो फिर आ गया सावों और शादियों का मौसम, फिर बजने लगी शहनाई और ढोल-धमाकों के साथ गूंजने लगे गली मोहल्ले। दूल्हे राजा घोडे पर सवार होकर निकले है लेकिन दलित मोहल्ले में शादी की खुशी के बीच मायूसी है। ढोल यहां भी बज रहे है पकवान बनने का दौर यहां भी जारी है। मेहंदी की रस्म और सभी परम्परा यहां भी चल रही है लेकिन सभी में कसक एक ही है की औरों की तरह हम क्यों घोडे पर सवार होकर बिंदौली नहीं निकाल सकते। अनुसूचित जाति वर्ग का होना क्या गुनाह है? क्या हमारे बैठने से घोडा बिदक जाएगा? या भगवान को हमारा घोडी पर बैठना पसंद नहीं? प्रश्नों की चर्चा चलेगी तो जवाब भी भांति-भांति के आएंगे लेकिन अंतिम जवाब यही रहेगा कि दलित घोडी पर बैठ कर बिंदौली नहीं निकालेगा और निकालेगा तो परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहे।
पुरानी परम्परा धीरे-धीरे खण्डित होने के बावजूद राजस्थान में दलित वर्ग की घोडे पर बैठा कर बिंदौली नहीं निकलने देने की रस्म अब गैर दलित वर्ग ने अपनी शान बना लिया है और जैसे ही किसी दलित के घर में शादी का आगाज होता है गैर दलित वर्ग पैगाम पहुंचा देते है कि बाकि सब ठीक है लेकिन बिंदौली घोडे पर नहीं निकलनी चाहिए। इन हालातों से अछूता राजसमन्द जिला भी नहीं है। इस जिले के केलवा थाना क्षेत्र के वागुंदडा गांव निवासी नेनूराम रेगर के घर में भी आगामी 30 नवम्बर को शादी है और वह धूमधाम से तैयारी में जुटा हुआ है। इसकी जानकारी मिलने पर नेनूराम को भी पैगाम आ गया कि बिंदौली घोडी पर नहीं निकलेगी। घर में खुशी का पहला अवसर हो और ऐसा पैगाम आए तो ऐसे में उसकी नींद उडनी स्वाभाविक थी लेकिन समाजसेवी और दलित वर्ग के प्रबोधक के रूप में जाने जाने वाले राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान शाखा के संयोजक को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने जिला कलक्टर और पुलिस अधीक्षक को इस आशय का पत्र सौंपते हुए सुरक्षा की गुहार की। पुलिस प्रशासन ने पीडित दलित वर्ग को हालांकि सुरक्षा उपलब्ध करवा दी लेकिन यक्ष प्रश्न यही कायम है कि क्यों गैर दलित वर्ग दलित वर्ग की बिंदौली नहीं निकालने देने को अपनी शान समझते है।