मुकेश त्रिवेदी
दासता को अभिशाप जो सदिया से चला आ रहा है वह कमोबेश भारत में खत्म होते नहीं दिख रहा है। इसकी मूल वजह व्यक्ति की मनोवृति। सदियो पूर्व व्यक्ति अपनी मजबूरी और लाचारीवश दास बनते थे। उस वक्त खुद और परिवार का गुजारा चले या न चले लेकिन मालिक को खुश रखने और उसका घर भरने के लिए दास बना व्यक्ति सब कुछ न्यौछावर कर देता। वह तब हर पीड़ा और शोषण को सह लेता।
अब हालात बदले है लेकिन व्यक्ति की मनोवृति नहीं बदली। व्यक्ति दास तब मजबूरी में बनता और अब आर्थिक प्रतिस्पध्र्दा की दौड में लोगों से कही पीछे न रह जाए यह सोचकर वह सब कुछ करने को तैयार है। ऐसे हालातों में आम इंसान खुद को दासत्व की और धकेले तो कोई अचरज नहीं। मगर विगत कुछ वर्षो में ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिल रहा है कि गांव का खेती-बाडी से सम्पन्न व्यक्ति होने के बावजूद अपने बच्चों को बाल श्रम करवाने से नहीं कतराता।
हाल ही में राजस्थान राय के राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ और उदयपुर के गोगुंदा क्षेत्र के गांवों का दौरा किया तो कमोबेश यही तथ्य सामने आए। यद्यपि खेती-बाड़ी से उनका और पूरे परिवार का गुजारा हो जाता है बावजूद इसके अपने बच्चों को सूरत की कपड़ा फैक्ट्री में पैसा कमाने के लिए भेज देते है।
यहा यह कहना गलत होगा कि बालश्रम के लिए सूरत जा रहे बच्चों को रोकने के लिए प्रशासन ने कोई प्रयास नहीं किए क्योंकि मुझे वर्ष 2005 का वह दिन याद आता है जब सर्व शिक्षा अभियान राजसमन्द के अधिकारी दिनेश श्रीमाल, सुश्री आशा वर्मा और श्याम सुंदर रामावत ने कुम्भलगढ क्षेत्र से सूरत गए बच्चों को तलाशा और उन्हें वहां से वापस यहां लाकर शिक्षा की मुख्य धारा से जोडा।
यहां मैं राजस्थान पत्रिका उदयपुर संस्करण की टीम को भी साधुवाद देना चाहूंगा जिन्होंने गत वर्ष गोगुंदा, खेरवाडा, झाडोल और कोटडा क्षेत्र से सूरत के ठेकेदारों द्वारा नाबालिग बच्चों को ले जाने की खबरों को प्रकाशित किया। इन्हीं खबरों के आधार पर उदयपुर जिला प्रशासन ने कार्रवाई करते हुए बालकों को न केवल ठेकेदारों के कब्जे से छुडवाया अपितु बालकों को शिक्षा से जोडने के लिए विशेष विद्यालय भी चलाए।
बालश्रम रोकने के लिए प्रशासन और समाचार पत्र ने तो अपनी सजगता दिखाई लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के अभिभावक आज भी अपने बच्चों के प्रति सजग नहीं है। आज भी यह लोग चाहते है कि उनका बालक घर के लिए कुछ न कुछ कमाएं। वे अपने लालच को पूर्ण करने के लिए पहले खुले आम बच्चों को सूरत भेजते थे लेकिन अब प्रशासनिक दबाव के चलते चोरी-छिपे भेज रहे है। ऐसे में ग्रामीण बच्चों का बचपन कैसे बच पाएगा?
दासता को अभिशाप जो सदिया से चला आ रहा है वह कमोबेश भारत में खत्म होते नहीं दिख रहा है। इसकी मूल वजह व्यक्ति की मनोवृति। सदियो पूर्व व्यक्ति अपनी मजबूरी और लाचारीवश दास बनते थे। उस वक्त खुद और परिवार का गुजारा चले या न चले लेकिन मालिक को खुश रखने और उसका घर भरने के लिए दास बना व्यक्ति सब कुछ न्यौछावर कर देता। वह तब हर पीड़ा और शोषण को सह लेता।
अब हालात बदले है लेकिन व्यक्ति की मनोवृति नहीं बदली। व्यक्ति दास तब मजबूरी में बनता और अब आर्थिक प्रतिस्पध्र्दा की दौड में लोगों से कही पीछे न रह जाए यह सोचकर वह सब कुछ करने को तैयार है। ऐसे हालातों में आम इंसान खुद को दासत्व की और धकेले तो कोई अचरज नहीं। मगर विगत कुछ वर्षो में ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिल रहा है कि गांव का खेती-बाडी से सम्पन्न व्यक्ति होने के बावजूद अपने बच्चों को बाल श्रम करवाने से नहीं कतराता।
हाल ही में राजस्थान राय के राजसमंद जिले के कुम्भलगढ़ और उदयपुर के गोगुंदा क्षेत्र के गांवों का दौरा किया तो कमोबेश यही तथ्य सामने आए। यद्यपि खेती-बाड़ी से उनका और पूरे परिवार का गुजारा हो जाता है बावजूद इसके अपने बच्चों को सूरत की कपड़ा फैक्ट्री में पैसा कमाने के लिए भेज देते है।
यहा यह कहना गलत होगा कि बालश्रम के लिए सूरत जा रहे बच्चों को रोकने के लिए प्रशासन ने कोई प्रयास नहीं किए क्योंकि मुझे वर्ष 2005 का वह दिन याद आता है जब सर्व शिक्षा अभियान राजसमन्द के अधिकारी दिनेश श्रीमाल, सुश्री आशा वर्मा और श्याम सुंदर रामावत ने कुम्भलगढ क्षेत्र से सूरत गए बच्चों को तलाशा और उन्हें वहां से वापस यहां लाकर शिक्षा की मुख्य धारा से जोडा।
यहां मैं राजस्थान पत्रिका उदयपुर संस्करण की टीम को भी साधुवाद देना चाहूंगा जिन्होंने गत वर्ष गोगुंदा, खेरवाडा, झाडोल और कोटडा क्षेत्र से सूरत के ठेकेदारों द्वारा नाबालिग बच्चों को ले जाने की खबरों को प्रकाशित किया। इन्हीं खबरों के आधार पर उदयपुर जिला प्रशासन ने कार्रवाई करते हुए बालकों को न केवल ठेकेदारों के कब्जे से छुडवाया अपितु बालकों को शिक्षा से जोडने के लिए विशेष विद्यालय भी चलाए।
बालश्रम रोकने के लिए प्रशासन और समाचार पत्र ने तो अपनी सजगता दिखाई लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के अभिभावक आज भी अपने बच्चों के प्रति सजग नहीं है। आज भी यह लोग चाहते है कि उनका बालक घर के लिए कुछ न कुछ कमाएं। वे अपने लालच को पूर्ण करने के लिए पहले खुले आम बच्चों को सूरत भेजते थे लेकिन अब प्रशासनिक दबाव के चलते चोरी-छिपे भेज रहे है। ऐसे में ग्रामीण बच्चों का बचपन कैसे बच पाएगा?