Wednesday, November 26, 2008

सरहदों से पार आई संगीत की बहार

पंछी को उड़ने से, नदी को बहने तथा पवन के झोंकों को कोई सरहद नहीं रोक सकती, उसी तरह संगीत के जादू को भी कोई सरहदी दीवार नहीं रोक सकती। संगीत का जादू सात समुद्र पार से भी लोगों को अपने ओर आकर्षित कर लेता है।
संगीत का यही जादू इन दिनों नजमुल निशा को जर्मनी से उदयपुर खींच लाया। लेखिका और पेशे से पत्रकार नजमुल भारतीय क्लासिकल संगीत से बहुत प्रभावित है। उन्होंने भारतीय क्लासिकल म्युजिक के व्यापक प्रचार प्रचार के लिए बर्लिन में टैगोर इंसटिनी अकादमी भी खोल रखी है। बांगला भाषी नजमुल ने भारत में खुद को प्यारी का उपनाम दिया है। ढाका में जन्मी नजमुल निशा ने बांगलादेश की बुलबुल अकादमी से टैगोर संगीत की बारिकियां सीखी। सन 1980 में बर्लिन में बतौर रेडियो जर्नलिस्ट काम करने का सोचा और जर्मन रेडियों एण्ड टेलीविजन में एडिटर का पद संभाला। इसके बाद भी वह अपने संगीत प्रेम को नहीं छोड़ पाई। उन्होंने बांगला में कई कविताएं भी लिखी। कविताओं की क्वालिटी के दम पर पिछले वर्ष जून माह में लंदन पोयट्री फेस्टीवल तथा इससे पहले न्यूयार्क के बुक फेयर में भाग लिया। हाल ही में कोलकता में आयोजित फिल्म फेस्टीवल में बतौर विशिष्ट अतिथि शरीक हुई।
नजमूल ने उदयपुर स्थित बोस म्यूजिक एकेडमी के बारे में अपने कई जर्मन दोस्तों से सुना तो सम्पर्क किया और वह इसके संस्थापक पंडित आरके बोस से मिलने उदयपुर आई। नजमूल ने बताया कि जर्मनी में इंडियन क्लासिकल म्यूजिक तथा सितार व तबला जैसे वाद्ययंत्रों को सिखाने के लिए यादा रुचि लेते है। उनके संस्थान में भारतीयों के मुकाबले स्थानीय लोगों की संख्या यादा है। स्वतंत्र पत्रकार के रूप में न्यूयार्क और कोलकता के विभिन्न समाचार पत्रों में लिखने वाली नजमूल निशा लेखन और अनुवाद में रुचि रखती है। सन 2005 में साहित्य नोबल पुरस्कार विजेता एल्फ्रेडो जोलिनेक के उपन्यास को इन दिनों वह बांगला में अनुवादित कर रही है।