आर्थिक प्रतिस्पध्र्दा के दौर में एक व्यक्ति की कमाई से गुजारा नहीं होने आर्थिक स्वतंत्रता की परिकल्पना को देखते हुए महिलाएं घर की दहलीज से बाहर निकल कर राजकीय नौकरियों के अलावा बड़ी कम्पनियों एवं मीडिया सहित कार्यालयों में एकाधिक महिलाएं कार्यरत मिलेगी।
समाचार पत्रों में आए दिन सहकर्मी द्वारा महिला के साथ अभद्रता करने या यौन दुराचार करने की घटनाएं छपती है। वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा अपराध पर बनाए गए विशिष्ट कार्यक्रमों में इसे प्रमुखता देते है। हालांकि समाचार पत्र अपनी आचार संहिता को ध्यान में रखते हुए अभद्रता और यौन दुराचार की शिकार हुई महिलाओं का नाम प्रकाशित नहीं करते है वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी पीडिता का चेहरा धुंधला कर दिखाने की परम्परा है। यहां सवाल पीडिता का चेहरा दिखाने या उसका नाम प्रकाशित करने का नहीं है अपितु आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर दहलीज से बाहर निकली महिलाओं को अपनी आचार संहिता और उसूलों पर कायम रहने का है। चूंकि मीडिया अपने उसूलों के तहत महिला चाहे व दोषी हो या न हो उसका नाम इसलिए नहीं उजागर करता क्योंकि एक महिला बदनाम होने के बाद उसे समाज और उस परिवेश के लोग जहां वह काम कर रही है, तुच्छ नजरों से ही देखते है।
बात जब निकली है कामकाजी महिलाओं की आचार संहिता की और उसके उसूलों की तो सबसे पहले उल्लेख करना होगा भारतीय संस्कृति में लागू परदा प्रथा की। चौंकने की जरूरत नहीं है और यहां हम यह भी नहीं कह रहे कि महिलाएं लम्बा सा घूंघट डालकर अपने कार्यस्थल पर जाएं बल्कि भारतीय संस्कृति में पुरातनवादी लोगों ने परदा प्रथा इसलिए शुरू की थी कि महिलाएं घर में रहे या बाहर निकले उसे अपनी मर्यादा की जानकारी रहे लेकिन शनै-शनै इस प्रथा ने विकृत रूप ले लिया और लोग घर की महिलाओं को लम्बे-लम्बे घूंघट निकालने पर मजबूर कर दिया। वर्तमान में घूंघट निकालना एक गैर वाजिब परम्परा माना जाता है और स्वाभाविक भी है कि कामकाजी महिलाएं यदि घूंघट निकाल कर बैठेगी तो वह काम क्या करेगी?
दूसरा उसूल हो अपनी बात और कमजोरी अपने तक सीमित रखने की क्षमता। प्राय: यह देखा जाता है कि महिलाएं अपने घर-परिवार में होने वाली अच्छी-बुरी बातों को अपने सहकर्मियों को साथ शेयर करती है। बातों को कहने के दौरान कई बार वह अपनी कमजोरी भी उजागर कर देती है इससे पुरूष सहकर्मी महिला की कमजोरी का फायदा उठाने का प्रयास करता है। तीसरा उसूल हो भारतीय संस्कृति अनुरूप कपडे पहने जाए। यहां लोग प्रश्न यह भी कर सकते है कि क्या साड़ी और सलवार पहनने वाली महिलाओं के साथ अभद्रता नहीं होती? आमतौर पर इन प्रश्नों का जवाब हां में हो सकता है लेकिन यह भी देखना होगा कि साडी और सलवार पहनने वाली महिलाओं के साथ होने वाली अभद्रता उन युवतियों के मुकाबले कम होती है जो स्कर्ट और फैशनेबल कपडे पहनती है। हाल ही में दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था ने दिल्ली और नोएडा परिक्षेत्र में किए सर्वे में इसका बात का उल्लेख किया है कि सड़कों और बाजारों में अभद्रता की शिकार अधिकांश वह युवतियां होती जिन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप कम कपडे पहन रखे है। सर्वे के अनुसार कम कपड़ों की वजह से मनचले युवतियों से सटने या उन पर फिकरे कसते है।
समाचार पत्रों में आए दिन सहकर्मी द्वारा महिला के साथ अभद्रता करने या यौन दुराचार करने की घटनाएं छपती है। वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा अपराध पर बनाए गए विशिष्ट कार्यक्रमों में इसे प्रमुखता देते है। हालांकि समाचार पत्र अपनी आचार संहिता को ध्यान में रखते हुए अभद्रता और यौन दुराचार की शिकार हुई महिलाओं का नाम प्रकाशित नहीं करते है वही इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी पीडिता का चेहरा धुंधला कर दिखाने की परम्परा है। यहां सवाल पीडिता का चेहरा दिखाने या उसका नाम प्रकाशित करने का नहीं है अपितु आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर दहलीज से बाहर निकली महिलाओं को अपनी आचार संहिता और उसूलों पर कायम रहने का है। चूंकि मीडिया अपने उसूलों के तहत महिला चाहे व दोषी हो या न हो उसका नाम इसलिए नहीं उजागर करता क्योंकि एक महिला बदनाम होने के बाद उसे समाज और उस परिवेश के लोग जहां वह काम कर रही है, तुच्छ नजरों से ही देखते है।
बात जब निकली है कामकाजी महिलाओं की आचार संहिता की और उसके उसूलों की तो सबसे पहले उल्लेख करना होगा भारतीय संस्कृति में लागू परदा प्रथा की। चौंकने की जरूरत नहीं है और यहां हम यह भी नहीं कह रहे कि महिलाएं लम्बा सा घूंघट डालकर अपने कार्यस्थल पर जाएं बल्कि भारतीय संस्कृति में पुरातनवादी लोगों ने परदा प्रथा इसलिए शुरू की थी कि महिलाएं घर में रहे या बाहर निकले उसे अपनी मर्यादा की जानकारी रहे लेकिन शनै-शनै इस प्रथा ने विकृत रूप ले लिया और लोग घर की महिलाओं को लम्बे-लम्बे घूंघट निकालने पर मजबूर कर दिया। वर्तमान में घूंघट निकालना एक गैर वाजिब परम्परा माना जाता है और स्वाभाविक भी है कि कामकाजी महिलाएं यदि घूंघट निकाल कर बैठेगी तो वह काम क्या करेगी?
दूसरा उसूल हो अपनी बात और कमजोरी अपने तक सीमित रखने की क्षमता। प्राय: यह देखा जाता है कि महिलाएं अपने घर-परिवार में होने वाली अच्छी-बुरी बातों को अपने सहकर्मियों को साथ शेयर करती है। बातों को कहने के दौरान कई बार वह अपनी कमजोरी भी उजागर कर देती है इससे पुरूष सहकर्मी महिला की कमजोरी का फायदा उठाने का प्रयास करता है। तीसरा उसूल हो भारतीय संस्कृति अनुरूप कपडे पहने जाए। यहां लोग प्रश्न यह भी कर सकते है कि क्या साड़ी और सलवार पहनने वाली महिलाओं के साथ अभद्रता नहीं होती? आमतौर पर इन प्रश्नों का जवाब हां में हो सकता है लेकिन यह भी देखना होगा कि साडी और सलवार पहनने वाली महिलाओं के साथ होने वाली अभद्रता उन युवतियों के मुकाबले कम होती है जो स्कर्ट और फैशनेबल कपडे पहनती है। हाल ही में दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था ने दिल्ली और नोएडा परिक्षेत्र में किए सर्वे में इसका बात का उल्लेख किया है कि सड़कों और बाजारों में अभद्रता की शिकार अधिकांश वह युवतियां होती जिन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप कम कपडे पहन रखे है। सर्वे के अनुसार कम कपड़ों की वजह से मनचले युवतियों से सटने या उन पर फिकरे कसते है।