विधान सभा चुनाव में एक सजग और सार्वजनिक समस्याओं के प्रति संवेदनशील प्रत्याशी चयनित हो इसके लिए स्वयंसेवी संगठनों द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाता है। राजस्थान के प्रमुख दैनिक राजस्थान पत्रिका ने भी जन भावना अनुरूप जागो जनमत के माध्यम से अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है जो वास्तव में सराहनीय कार्य है। समाचार पत्र और मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है क्योंकि वह दिन-प्रतिदिन लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ के बारे में सही और प्रमाणिक जानकारी देकर सजग करने में भूमिका का निर्वाह करता है। यही वजह है कि समाचार पत्र में प्रतिदिन सरकार के अच्छे कार्यो को जहां तरजीह दी जाती है वही सरकार के मंत्रियों और सरकारी अधिकारी व कर्मचारी वर्ग द्वारा किए गए बुरे कार्यो की भी पोल खोल दी जाती है। विगत डेढ़ दशक में इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भी स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से बड़े से बडे भ्रष्टाचार का खुलासा किया है।
बात यहां लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ समाचार पत्र और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर से निभाई जा रही प्रामाणिक भूमिका की नहीं है। यहां बात हो रही है पूर्णतया व्यावसायिक बनते जा रहे मीडिया की भूमिका के बारे में है। विधानसभा चुनाव का दौर चल रहा है ऐसे में मीडिया के विज्ञापन प्रतिनिधि चुनाव में खडे हुए प्रत्याशी से विज्ञापन लेते है या प्रत्याशी के विज्ञापन प्रकाशित करते है। इसमें कोई बुराई नहीं है। चूंकि यह सर्वमान्य है कि समाचार पत्र और मीडिया विज्ञापन की कमाई से अपना अधिकांश व्यय समायोजित करते है। विधानसभा चुनाव हो या नहीं हो दीपावली, होली या अन्य कोई विशेष अवसर पर समाचार पत्र विज्ञापन के परिशिष्ट निकालने की परम्परा चल पडी है जो भी बुरी बात नहीं है क्याेंकि जनता समाचारों के साथ विज्ञापन का महत्व समझने लगी है।
राजस्थान के विधानसभा चुनावों में मीडिया के कतिपय लोगों ने एक और नई परिपाटी शुरू की है। जिसका उदाहरण प्रतापगढ जिले के बड़ी सादडी विधानसभा क्षेत्र में गत दिनों एक प्रत्याशी ने पेश किया। प्रत्याशी ने एक पत्रकार वार्ता का आयोजन किया और उसमें अपने प्रचारात्मक सामग्री देते हुए प्रत्येक पत्रकार से उसे छापने का आह्वान किया। सम्मेलन में शरीक हुए पत्रकारों के मुताबिक प्रत्येक पत्रकार को उक्त प्रचार सामग्री प्रकाशन के लिए हजारों रुपए भी दिए गए। हालांकि एक बडे समाचार पत्र के प्रतिनिधि ने प्रत्याशी द्वारा दिए गए रुपए का विरोध करते हुए वापस उसी को लौटा दिए। उक्त प्रतिनिधि ने इस सम्बन्ध में अपनी समाचार डेस्क को अवगत भी कराया, जिस पर इस बडे समाचार पत्र ने पूरे राय के सभी संस्करणों के सम्पादकों को समाचार पत्र की आचार संहिता का उल्लेख करते हुए निर्देशित किया कि इस प्रकार की प्रचारात्मक सामग्री छापने से बचे। बतौर विज्ञापन भी उस प्रत्याशी को जनता का भगवान बनाने का प्रयास नहीं किया जाएं।
यहां तो बात उस समाचार पत्र की हुई जिसने मीडिया की आचार संहिता के मुताबिक ऐसे प्रचारात्मक तरीके को रोकने का प्रयास किया लेकिन बडी सादडी में घटी घटना का दूसरा दु:खद पहलु यह भी रहा कि कई समाचार पत्रों ने अपवादों को छोड़ दे तो उक्त प्रत्याशी की प्रचारात्मक सामग्री को हुबहु छाप दिया। हो सकता है कई पाठक और मीडियाकर्मी इस पर अपनी यह राय दे कि यह तो पहले भी चल रहा था इसमें नया क्या है? तो यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि चुनाव के दौरान पहले प्रत्याशी छोटे-छोटे समाचार पत्र जिनमें से अधिकांश उनकी रहमोकरम पर चल रहे है वे ही उनकी प्रचार सामग्री को छापते थे लेकिन अब इसका रूप बदलने लगा है।
बड़ी सादडी में प्रत्याशी द्वारा की गई एक तुच्छ हरकत ने कतिपय मीडियाकर्मी को इस चुनाव में उपरी तौर पर अच्छी कमाई करने का मार्ग प्रशस्त भी कर दिया। इस घटना के बाद कतिपय मीडियाकर्मी उक्त प्रत्याशी के अलावा संभाग के विधानसभा क्षेत्रों मे खडे प्रत्याशी से मिलने-जुलने का काम शुरू कर दिया। प्रत्याशी के प्रचारात्मक एक पृष्ठ सामग्री के लिए लाखों रुपए के सौदे भी किए जा रहे है। कतिपय मीडियाकर्मी इन प्रत्याशियों से यह भी कहते नजर आते है कि विज्ञापन के तौर पर भी उनकी प्रचारात्मक सामग्री लग सकती है लेकिन इसमें जो व्यय होगा वह उसके चुनाव खर्च में जुडेग़ा और इसका नुकसान भी उसे होगा। विधानसभा चुनाव में खडे होने वाले प्रत्याशी को अधिकतम दस लाख रुपए खर्च करने की अनुमति है। स्वाभाविक तौर पर प्रत्याशी अधिकतम दस लाख रुपए से कई गुना अधिक खर्च करते है लेकिन खर्चा पेश करते वक्त दस लाख से कम के बिल और अन्य दस्तावेज पेश करते है। कतिपय मीडियाकर्मी इस कमजोरी का फायदा उठा कर अपनी स्वार्थ सिध्द कर रहे है।
मीडिया में पाठक समाचार इसलिए पढ़ते और देखते है ताकि वह अपनी राय बना सके लेकिन इस तरह किसी प्रत्याशी का डंका बजाना क्या न्यायोचित है? क्या इसके माध्यम से समाचार पत्र जनमत को जगा सकेंगे?
बात यहां लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ समाचार पत्र और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की ओर से निभाई जा रही प्रामाणिक भूमिका की नहीं है। यहां बात हो रही है पूर्णतया व्यावसायिक बनते जा रहे मीडिया की भूमिका के बारे में है। विधानसभा चुनाव का दौर चल रहा है ऐसे में मीडिया के विज्ञापन प्रतिनिधि चुनाव में खडे हुए प्रत्याशी से विज्ञापन लेते है या प्रत्याशी के विज्ञापन प्रकाशित करते है। इसमें कोई बुराई नहीं है। चूंकि यह सर्वमान्य है कि समाचार पत्र और मीडिया विज्ञापन की कमाई से अपना अधिकांश व्यय समायोजित करते है। विधानसभा चुनाव हो या नहीं हो दीपावली, होली या अन्य कोई विशेष अवसर पर समाचार पत्र विज्ञापन के परिशिष्ट निकालने की परम्परा चल पडी है जो भी बुरी बात नहीं है क्याेंकि जनता समाचारों के साथ विज्ञापन का महत्व समझने लगी है।
राजस्थान के विधानसभा चुनावों में मीडिया के कतिपय लोगों ने एक और नई परिपाटी शुरू की है। जिसका उदाहरण प्रतापगढ जिले के बड़ी सादडी विधानसभा क्षेत्र में गत दिनों एक प्रत्याशी ने पेश किया। प्रत्याशी ने एक पत्रकार वार्ता का आयोजन किया और उसमें अपने प्रचारात्मक सामग्री देते हुए प्रत्येक पत्रकार से उसे छापने का आह्वान किया। सम्मेलन में शरीक हुए पत्रकारों के मुताबिक प्रत्येक पत्रकार को उक्त प्रचार सामग्री प्रकाशन के लिए हजारों रुपए भी दिए गए। हालांकि एक बडे समाचार पत्र के प्रतिनिधि ने प्रत्याशी द्वारा दिए गए रुपए का विरोध करते हुए वापस उसी को लौटा दिए। उक्त प्रतिनिधि ने इस सम्बन्ध में अपनी समाचार डेस्क को अवगत भी कराया, जिस पर इस बडे समाचार पत्र ने पूरे राय के सभी संस्करणों के सम्पादकों को समाचार पत्र की आचार संहिता का उल्लेख करते हुए निर्देशित किया कि इस प्रकार की प्रचारात्मक सामग्री छापने से बचे। बतौर विज्ञापन भी उस प्रत्याशी को जनता का भगवान बनाने का प्रयास नहीं किया जाएं।
यहां तो बात उस समाचार पत्र की हुई जिसने मीडिया की आचार संहिता के मुताबिक ऐसे प्रचारात्मक तरीके को रोकने का प्रयास किया लेकिन बडी सादडी में घटी घटना का दूसरा दु:खद पहलु यह भी रहा कि कई समाचार पत्रों ने अपवादों को छोड़ दे तो उक्त प्रत्याशी की प्रचारात्मक सामग्री को हुबहु छाप दिया। हो सकता है कई पाठक और मीडियाकर्मी इस पर अपनी यह राय दे कि यह तो पहले भी चल रहा था इसमें नया क्या है? तो यहां मैं यह कहना चाहूंगा कि चुनाव के दौरान पहले प्रत्याशी छोटे-छोटे समाचार पत्र जिनमें से अधिकांश उनकी रहमोकरम पर चल रहे है वे ही उनकी प्रचार सामग्री को छापते थे लेकिन अब इसका रूप बदलने लगा है।
बड़ी सादडी में प्रत्याशी द्वारा की गई एक तुच्छ हरकत ने कतिपय मीडियाकर्मी को इस चुनाव में उपरी तौर पर अच्छी कमाई करने का मार्ग प्रशस्त भी कर दिया। इस घटना के बाद कतिपय मीडियाकर्मी उक्त प्रत्याशी के अलावा संभाग के विधानसभा क्षेत्रों मे खडे प्रत्याशी से मिलने-जुलने का काम शुरू कर दिया। प्रत्याशी के प्रचारात्मक एक पृष्ठ सामग्री के लिए लाखों रुपए के सौदे भी किए जा रहे है। कतिपय मीडियाकर्मी इन प्रत्याशियों से यह भी कहते नजर आते है कि विज्ञापन के तौर पर भी उनकी प्रचारात्मक सामग्री लग सकती है लेकिन इसमें जो व्यय होगा वह उसके चुनाव खर्च में जुडेग़ा और इसका नुकसान भी उसे होगा। विधानसभा चुनाव में खडे होने वाले प्रत्याशी को अधिकतम दस लाख रुपए खर्च करने की अनुमति है। स्वाभाविक तौर पर प्रत्याशी अधिकतम दस लाख रुपए से कई गुना अधिक खर्च करते है लेकिन खर्चा पेश करते वक्त दस लाख से कम के बिल और अन्य दस्तावेज पेश करते है। कतिपय मीडियाकर्मी इस कमजोरी का फायदा उठा कर अपनी स्वार्थ सिध्द कर रहे है।
मीडिया में पाठक समाचार इसलिए पढ़ते और देखते है ताकि वह अपनी राय बना सके लेकिन इस तरह किसी प्रत्याशी का डंका बजाना क्या न्यायोचित है? क्या इसके माध्यम से समाचार पत्र जनमत को जगा सकेंगे?