उदयपुर. मेवाड़ के आराध्य एकलिंगनाथ और कैलाशपुरी को शैव तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के उद्देश्य से स्थल-पुराण की रचना हुई है। ‘एकलिंग माहात्म्य’ संस्कृत ग्रंथ की रचना करीब साढ़े पांच सौ साल पहले महाराणा कुंभा के समय में की गई। महाराणा शंभूसिंह (1864 ई.) के समय, कोई 145 वर्ष पूर्व इस ग्रंथ का मेवाड़ी में अनुवाद हुआ।
हाल ही इसकी संपूर्ण पांडुलिपि मिली है। मेवाड़ ही नहीं, राजस्थान में लिखा गया यह एक मात्र पौराणिक ग्रंथ है। नारद और वायु संवाद, सूतादि के प्रश्नोत्तर के रूप में लिखे गए इस ग्रंथ में एकलिंगजी और इस क्षेत्र के समस्त तीर्र्थो, पूजन विधि, यात्रा विधि, भूगोल, पहाड़-वनस्पति और मेवाड़ के राजवंश का महत्व वर्णित है। कुल 32 अध्यायों वाले इस ग्रंथ में श्लोक 3500 है अनूदित ग्रंथ की पृष्ठ संख्या 206 है। इसके अनुवाद का श्रेय प्रतिलिपिकार कोटेश्वर दशोरा को जाता है।
इसके प्रथम पृष्ठ पर आया है- अथ एकलिंग माहात्म्य लिख्यते। प्रथम ग्रंथ को करता श्रीसूर्यनारायण की स्तुति करे है। तेज का भंडार सूर्यनारायण सबमें श्रेष्ठ विराजमान है। कस्या श्रेष्ठ है जणा का उदय वेती वेला और अस्त वेती वेला देवता रा मुकुट है जणाऊं करे ने वस्या है चरण कमल जणा का। अस्या त्रिनेत्र शिव ने पण हाथ जोड़े सन्मुख अंजलि करे है। सरस्वती री प्रार्थना करे है, ज्ञान ने करवा वात्त ब्रrाजी वणा को अन्त:करण है सो जठ वणी ने जीते असी वाणी जो सरस्वती ज्यो सर्व सुं श्रेष्ठ विराजमान है। कशि है सरस्वती सुं वा केता सगÝी जायगां प्रवर्तमान वे रही है।अंतिम पृष्ठ पर कहा गया है- फेर कस्या है एकलिंगजी, पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, ब्रrा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर वेईज है। सदाशिव है, अर ई जगत ने उत्पन्न करे है, पालन करे है, जगत ने संहार करे है, अंतरध्यान करे है, अनुग्रह करे हैर्, ई रीत सूं ब्रrा, विष्णु, रुद्र, ईश, सदाशिव, अणा पांच रूप सूं संयुक्त ई कार्य पृथक्-पृथक् करे है। इति श्रीवायुपुराणो मेदपाटीय श्रीएकलिंग माहात्म्ये यात्रा विधि महोत्सव वर्णनं नाम द्वात्रिंशो अध्याय:।। मंगलं लेखकानां च पाठकानां च मंगलम्। मंगलं सर्वदेवानां भूमेभरूपति मंगलम्।। संवत् 1920 का कार्तिक विद 10 शुक्रवासरे लिखितमिदं पुस्तकं ब्राrाण दशोरा कोटेश्वरेण नग्र उदयपुर मध्ये। श्रीएकलिंगजी प्रसन्नोक्तम्।
हाल ही इसकी संपूर्ण पांडुलिपि मिली है। मेवाड़ ही नहीं, राजस्थान में लिखा गया यह एक मात्र पौराणिक ग्रंथ है। नारद और वायु संवाद, सूतादि के प्रश्नोत्तर के रूप में लिखे गए इस ग्रंथ में एकलिंगजी और इस क्षेत्र के समस्त तीर्र्थो, पूजन विधि, यात्रा विधि, भूगोल, पहाड़-वनस्पति और मेवाड़ के राजवंश का महत्व वर्णित है। कुल 32 अध्यायों वाले इस ग्रंथ में श्लोक 3500 है अनूदित ग्रंथ की पृष्ठ संख्या 206 है। इसके अनुवाद का श्रेय प्रतिलिपिकार कोटेश्वर दशोरा को जाता है।
इसके प्रथम पृष्ठ पर आया है- अथ एकलिंग माहात्म्य लिख्यते। प्रथम ग्रंथ को करता श्रीसूर्यनारायण की स्तुति करे है। तेज का भंडार सूर्यनारायण सबमें श्रेष्ठ विराजमान है। कस्या श्रेष्ठ है जणा का उदय वेती वेला और अस्त वेती वेला देवता रा मुकुट है जणाऊं करे ने वस्या है चरण कमल जणा का। अस्या त्रिनेत्र शिव ने पण हाथ जोड़े सन्मुख अंजलि करे है। सरस्वती री प्रार्थना करे है, ज्ञान ने करवा वात्त ब्रrाजी वणा को अन्त:करण है सो जठ वणी ने जीते असी वाणी जो सरस्वती ज्यो सर्व सुं श्रेष्ठ विराजमान है। कशि है सरस्वती सुं वा केता सगÝी जायगां प्रवर्तमान वे रही है।अंतिम पृष्ठ पर कहा गया है- फेर कस्या है एकलिंगजी, पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, ब्रrा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर वेईज है। सदाशिव है, अर ई जगत ने उत्पन्न करे है, पालन करे है, जगत ने संहार करे है, अंतरध्यान करे है, अनुग्रह करे हैर्, ई रीत सूं ब्रrा, विष्णु, रुद्र, ईश, सदाशिव, अणा पांच रूप सूं संयुक्त ई कार्य पृथक्-पृथक् करे है। इति श्रीवायुपुराणो मेदपाटीय श्रीएकलिंग माहात्म्ये यात्रा विधि महोत्सव वर्णनं नाम द्वात्रिंशो अध्याय:।। मंगलं लेखकानां च पाठकानां च मंगलम्। मंगलं सर्वदेवानां भूमेभरूपति मंगलम्।। संवत् 1920 का कार्तिक विद 10 शुक्रवासरे लिखितमिदं पुस्तकं ब्राrाण दशोरा कोटेश्वरेण नग्र उदयपुर मध्ये। श्रीएकलिंगजी प्रसन्नोक्तम्।