Wednesday, March 4, 2009

इस बार भी स्पष्ट बहुमत नहीं

आखिरकार 15वें आम चुनाव के लिए पर्दा उठ गया। निर्वाचन आयोग ने पांच चरणों में होने वाले आम चुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया। यह शायद ही किसी की नजरों से छिपा हो कि 14वीं लोकसभा के पटाक्षेप के मौके पर वातावरण, पिछली लोकसभा के पटाक्षेप के मौके से बहुत भिन्न था। चौदहवीं लोकसभा के लिए चुनावी महाभारत बाकायदा छिड़ने से पहले से, उस समय सत्ता में बैठा एनडीए ही नहीं, बल्कि देश का एक बड़ा प्रबुद्ध तबका, खास तौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नतीजे के संबंध में सौ फीसदी आश्वस्त था कि एनडीए जीत रहा है! भले ही उसका वह आकलन गलत साबित हुआ। लेकिन 15वीं लोकसभा के महाभारत के नतीजों के संबंध में अभी तक ऐसी कोई बात पक्के तौर पर नहीं कही जा रही है। हां, इस तरह के कयास जरूर लगाए जा रहे हैं कि इस बार शायद किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिले। इस संभावित नतीजे की झलक चुनाव पूर्व विश्लेषणों और सर्वेक्षणों से मिलने लगी है। हालांकि, कुछ विश्लेषण कई उपलब्धियों, जैसे नरेगा, भारत निर्माण योजना और महंगाई दर काबू रखने के आधार पर यूपीए को बढ़त मिलने की उम्मीद जता रहे हैं, लेकिन सीएसडीएस और टीवी चैनल सीएनएन-आईबीएन ने मिल कर जो चुनाव पूर्व सर्वेक्षण किया है, उसमें बड़े जोरदार ढंग से हंग लोकसभा की भविष्यवाणी की गई है। इस सर्वे के अनुमानों के मुताबिक यूपीए को 215 से 235 सीट, जबकि एनडीए को 165 से 185 सीटें मिलने का अनुमान है। यानी दोनों के बीच ज्यादा से ज्यादा 400 सीटें बंटेंगी। दूसरे शब्दों में आने वाली लोकसभा कमोबेश तीन एक जैसी ताकत वाले टुकड़ों में बंटी होगी। सर्वेक्षण के मत प्रतिशत का अनुमान इस विभाजन के तिकोनेपन को और बढ़ा देता है। इसके अनुसार यूपीए को कुल वोट का 36 फीसदी और एनडीए को 29 फीसदी, यानी दोनों को मिलकर कुल 65 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है। 35 फीसदी वोट, इन दोनों गठबंधनों के बाहर ही रहेंगे। सर्वे के अनुमान का एक और पहलू इसे और भी महत्वपूर्ण बना देता है। इसके हिसाब से यूपीए को 2004 के बराबर ही वोट पड़ेंगे, लेकिन एनडीए इस मामले में सात फीसदी नीचे चला जाएगा। यानी दोनों का वोट प्रतिशत जोड़ दें तो कुल सात फीसदी की गिरावट। ऐसी गिरावट अगर वाकई में होती है, तो वह कोई अपवाद न होकर एक बड़े रुझान को ही दिखा रही होगी। देश की राजनीति का केंद्र होने की दावेदार बीजेपी और कांग्रेस के लिए ही नहीं, उनके नेतृत्व वाले चुनावी गठबंधनों तक के लिए चुनाव- दर- चुनाव जनसमर्थन का घटते जाना, अब जैसे नियम ही बन गया है। 2004 के चुनाव में कांग्रेस को 145 सीटें मिली थीं और 26.33 फीसद वोट, जबकि बीजेपी को 138 सीटें और 22.16 फीसद वोट। यानी कुल 283 या आधे से जरा सी ऊपर सीटें और 48.49 फीसद वोट। 1999 के चुनाव में यही आंकड़ा 296 सीटों और 52.05 फीसद वोट का था, यानी 2004 के मुकाबले थोड़ा बेहतर। इस तरह, देश की राजनीति का केंद्र होने की दावेदार कांग्रेस तथा बीजेपी और उनके नेतृत्व वाले मोर्चे के राजनीतिक वजन का सिकुड़ते जाना भी एक बड़ी राजनीतिक सचाई है। यह संयोग नहीं है कि 1984 के आखिर में श्रीमती इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव के बाद से अब तक केंद्र के स्तर पर किसी एक पार्टी के लिए बहुमत हासिल करके सरकार बनाना संभव नहीं हुआ है। नब्बे के दशक के शुरू में नई आर्थिक नीतियों पर अमल शुरू होने के बाद से तो पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने की दावेदार पार्टियों पर केंद्रित गठबंधनों के लिए भी बहुमत का आंकड़ा छूना नामुमकिन हो गया है। हो सकता है कि आंकड़ों में आसार जितने निराशाजनक दीखते हों, वास्तव में उतने हों नहीं। और बात फिलहाल रुझानों की हो रही है। फिर भी राजनीति का जरा सा भी जानकार बता देगा कि यूपीए और एनडीए, दोनों की हालत अच्छी नहीं है। बेशक, एनडीए के लिए बुरी खबरें ज्यादा हैं। दक्षिण में कर्नाटक को छोड़कर उसका खाता खाली है और इसमें आंध्र व तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य भी शामिल हैं। बिहार, उड़ीसा तथा पंजाब में, जहां सहयोगियों के साथ उसकी गठबंधन सरकारें चल रही हैं, सहयोगी दल केक का अपना टुकड़ा बढ़ाने की जद्दोजेहद में जुटे हुए हैं। महाराष्ट्र में शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस की खिचड़ी चुनाव से पहले नहीं भी पकी, तब भी चुनाव के बाद की अनिश्चितताओं को और बढ़ाने जरूर जा रही है। दूसरी ओर जहां तक यूपीए की बात है, दक्षिण में उसका नुकसान तय है, पर उसके लिए अपने अवश्यंभावी नुकसान की भरपाई शेष भारत में कर पाने की उम्मीद करना बहुत ज्यादा होगा। बेशक, ये शासन की बढ़ती अस्थिरताओं के संकेत हैं। लेकिन यह अस्थिरता मतदाताओं के चित्त की अस्थिरता या अपरिपक्वता का मामला नहीं है। इसके उलट यह हमारे जनतांत्रिक ढांचे की सीमाओं का मामला ज्यादा है, जहां जनसमर्थन के मामले में अल्पमत में होते हुए भी न सिर्फ सरकार बनाई जा सकती है, देश पर वे नीतियां भी थोपी जा सकती हैं, जिन्हें जनता के बहुमत का समर्थन कभी न मिला है और न मिल सकता है। लेकिन नीतिगत मुद्दों पर अन्य छोटी पार्टियों की अस्पष्टता तथा उनके नेतृत्व की अवसरवादिता का सहारा लेकर, गठबंधनों के माध्यम से इन पार्टियों के नेतृत्व वाली सरकारें बहुमत का साथ न होने के बावजूद उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती रही हैं। मौका मिला तो आगे भी करना चाहेंगी। पर इसी पहलू से, अगर 15वीं लोकसभा में यूपीए और एनडीए की ताकत सिकुड़ती है, तो यह जनतंत्र में जनता की आवाज की बहाली के हिसाब से शुभ हो सकता है। त्रिशंकु लोकसभा में तिहरे विभाजन से, जो भी सरकार बनेगी उस पर जनता की राय का बेहतर नियंत्रण रहेगा। यह मौजूदा आर्थिक संकट के दौर में बहुत जरूरी है, क्योंकि सारी दुनिया जनता की आजीविका, घरेलू बाजार की रक्षा तथा बढ़ोतरी के लिए शासन की भूमिका बढ़ाने की जरूरत स्वीकार कर रही है। NBT