Sunday, March 15, 2009

आयोग की आंखों में धूल झोंकने की तैयारी

मंदी के इस दौर में कौन कह सकता है कि बाजार में पैसे की रेल-पेल नहीं है । कम से कम लोकसभा चुनाव तो यह मौका लेकर आ ही रहा है। अकेली दिल्ली में ही चुनाव के नाम पर कम से कम 100 करोड़ रुपये खर्च होंगे। चुनाव आयोग ने भले ही तय कर दिया हो कि कोई उम्मीदवार 25 लाख रुपये से अधिक खर्च नहीं कर सकता, लेकिन उम्मीदवारों ने हमेशा की तरह इस बार भी चुनाव आयोग की आंखों में धूल झोंकने की तैयारी कर ली है। दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के चुनाव कराने पर ही चुनाव आयोग 20 करोड़ रुपये खर्च करेगा। यह राशि ईवीएम मशीनों के इंतजाम से लेकर, सरकारी कर्मचारियों की सैलरी और अन्य इंतजामों पर खर्च होगी। दूसरी तरफ उम्मीदवारों का खर्च तो इससे कई गुना अधिक होने वाला है। रामवीर सिंह बिधूड़ी मानते हैं कि अब चुनाव काफी महंगा हो गया है। ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां वोटर को पैसा और शराब दोनों ही उपलब्ध कराने पड़ते हैं। ऐसे में करोड़ों की आवश्यकता तो पड़ती ही है। यह अनुमान है कि राजधानी की एक सीट पर लोकसभा चुनाव लड़ने का खर्चा दो से तीन करोड़ रुपये तो आएगा ही। यह राशि उन गंभीर उम्मीदवारों के लिए है, जो वास्तव में चुनाव जीतने के लिए मैदान में उतर रहे हैं। कांग्रेस, बीजेपी और यहां तक कि बीएसपी के भी जो उम्मीदवार चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं, उन्होंने अपना बजट पहले से ही तैयार कर लिया है। कई बार चुनाव लड़ चुके और संसद तक पहुंच चुके नेताओं ने साफ कर दिया है कि भले ही चुनाव आयोग के पास खर्चे का ब्यौरा जमा कराने की अनिवार्यता हो और चुनाव आयोग भी वीडियोग्राफी का सहारा ले चुका हो, करोड़ों के खर्च पर रोक लगाना संभव नहीं है। उदाहरण के लिए पोलिंग के दिन ही कम से कम एक करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं। हालांकि अभी पोलिंग बूथ की लिस्ट नहीं आई लेकिन यदि किसी क्षेत्र में 1,500 पोलिंग बूथ हैं तो हर बूथ पर पार्टी के कम से कम 10 सदस्य रखने ही पड़ते हैं। इनमें पोलिंग एजेंट भी होते हैं और बाहर बैठकर वोटरों की पचीर् बनाने वाले भी। इसके अलावा बूथ मैनेजमेंट के तहत घर से वोटर को लाने का जिम्मा भी होता है। अगर प्रति वर्कर 200 रुपये भी खर्च आए तो 30 लाख रुपये का भुगतान तो इन वर्करों को ही करना पड़ता है। इसके अलावा उनके खाने-पीने का प्रबंध, गाड़ियां, प्रचार सामग्री और फर्नीचर पर करीब 70 लाख का खर्च आएगा। एक निवर्तमान सांसद मानते हैं कि चुनाव के दौरान पेड वर्कर रखना एक मजबूरी होती है। इन वर्करों को मेहनताना तो देना ही पड़ता है, शाम को शराब पर भी काफी पैसे खर्च होते हैं। साथ ही चुनाव प्रचार के दौरान भले ही तीन गाड़ियों की इजाजत हो लेकिन वास्तव में गाड़ियों की संख्या सैकड़ों में होती है। कई वर्कर सिर्फ पेट्रॉल के खर्चे से ही गुजारा चला लेते हैं। चुनाव प्रचार शुरू होने से करीब एक महीने तक मुख्य कार्यालय में वर्करों के लिए लगातार खाने की व्यवस्था की जाती है। हालांकि पोस्टर, बैनर पर रोक है, लेकिन कार्यालय के भीतर तो इन्हें लगाया ही जाता है। चुनाव प्रचार के नए तरीकों जैसे नुक्कड़ नाटक मंडलियां, केबल टीवी, एफएम, मोबाइल, एसएमएस आदि का खर्चा भी लाखों में बैठने लगा है। नेता यह भी मानते हैं कि चुनाव आयोग की सख्ती के बाद अब प्रचार का खर्चा कुछ कम तो हुआ है लेकिन कुल मिलाकर करोड़ों के इस खचेर् को सिर्फ 25 लाख रुपये में बदलना कोई मुश्किल काम नहीं होता। यह सिर्फ एक कागजी कार्रवाई को पूरा करने के समान होता है। NBT