हापुड गांव में आर्थिक रूप से सुदृढ नौजवानों की कमी नहीं है कमी है तो उनके पास जीवनसाथी की। इस क्षेत्र8 में नौजवानों को चाहे वह कितना ही पैसे वाला क्यो न हो उससे अपनी लडकी की शादी करवाने के लिए कोई तैयार नहीं होता है। इसकी मुख्य वजह है यहां पर्यावरण प्रदूषण का होना यहां के तमाम लोगों पर पर्यावरण की ऐसी मार पड़ रही है कि क्षेत्र के 40 फीसदी से ज्यादा नौजवान घर बैठे हैं और उनकी शादियां टूटने लगी हैं और इसकी वजह है यहां अवैध रूप से चल रहीं बोन और ग्लू (सरेस) की फैक्ट्रियां। इन फैक्ट्रियों की वजह से यहां का पर्यावरण संतुलन बिगड़ता जा रहा है। गांव के चारों ओर मांस की बदबू फैली रहती है, पानी में अक्सर खून आता है और आसमान में चील, गिद्ध और कौवे मंडराते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में रहने की वजह से इसका असर यहां रहने वाले बाशिंदों के शरीर पर पड़ रहा है। लोग यहां अपनी लड़की के लिए रिश्ता देखने आते हैं, तो लड़केवालों से लड़कीवालों की सबसे पहली मांग गांव छोड़ने की होती है। जो लोग घर छोड़ देते हैं, वे तो सुखी हैं और जो अपने पुश्तैनी मकानों को न छोड़ने का मन बना चुके हैं, हापुड़ में बीस सालों से ज्यादा समय से अवैध रूप से बोन और ग्लू मिल्स चल रही हैं, जिनसे गांवों की डेढ़ लाख से ज्यादा आबादी प्रभावित है। यहां चल रही बोन फैक्ट्रियों के खिलाफ बीते 12 सालों से लड़ाई लड़ रही एंटी प्रदूषण एवं जन कल्याण चेतना कमिटी के कानूनी सलाहकार कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए यहां आज भी अवैध रूप से बोन और ग्लू फैक्ट्रियां चल रही हैं। पहले तो कम पढ़ी-लिखी लड़कियां जैसे-तैसे निर्वाह कर लेती थीं, लेकिन आजकल तो गांव में भी लड़कियां कम-से-कम ग्रैजुएट होती हैं। वे अच्छे-बुरे की जानकारी रखती हैं, लिहाजा प्रदूषण से उनके शरीर और उनकी आने वाली नस्लों पर होने वाले प्रभाव को बखूबी जानते हुए कोई भी लड़की यहां ब्याह करने को तैयार नहीं होती। नतीजा, आर्थिक रूप से मजबूत और पढ़े-लिखे 40 फीसदी से ज्यादा लड़के कुंआरे बैठे हैं। कुछ लड़केवाले तो अपने लड़के की शादी के लिए दहेज देने की भी पेशकश करते हैं, लेकिन फिर भी बात नहीं बन पाती।