मेरे एक परिचित की स्टेशनरी व साहित्यिक किताबों की दुकान थी। एक समय था जब उनके पिताजी के प्रयासों से दुकान खूब चलती थी। लेकिन पिताजी के मरते ही दुकान बैठ गई। मेरा उनसे परिचय भी तब हुआ जब दुकान बैठ चुकी थी। मैं जब भी उनकी दुकान पर जाता, वह उदास बैठे मिलते। दुकान में छिटपुट सामग्री बची थी। पेन्सिल, कलम, नोट बुक्स, सादे कागज आदि। साहित्यिक पत्रिकाएं व पुस्तकें मंगाना उन्होंने बंद कर दिया था। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि अब लोगों में साहित्य के प्रति रुचि नहीं रही। कहने लगे- आप जैसा कस्टमर कभी-कभार कोई आ जाता है वरना कोई झांकता भी नहीं। आसपास दो स्कूल थे जहां के छात्रों से स्टेशनरी की अच्छी बिक्री हो जाया करती थी मगर उन स्कूलों ने नया चलन अपना लिया। छात्र अब सारी सामग्री स्कूल से ही खरीदते हैं। इसलिए दुकान पर बैठा-बैठा दिनन के फेर देखता रहता हूं। मैंने उन्हें परंपरानुसार सांत्वना दी कि वे दिन नहीं रहे तो ये दिन भी नहीं रहेंगे। फिर मेरी उनकी भेंट नहीं हुई। दो साल निकल गए। एक दिन मुझे उनकी याद आई तो मिलने पहुंचा। वहां पुरानी दुकान की जगह नई चमचमाती दुकान थी। दुकान के बाहर एक शानदार पुतला खड़ा था मात्र कच्छा पहने। ऊपर भव्य बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- नैशनल कच्छा स्टोर। मुझे भ्रम हुआ कि शायद मैं गलत जगह पहुंच गया हूं। मगर जगह वही थी। सड़क पर असमंजस में खड़ा था तभी उन्होंने दुकान के अंदर से आवाज दी- अरे बाबूजी आइए आइए। मैं दुकान के अंदर गया। उन्होंने सादर बैठाया, चाय-पानी पीते मैंने पूछा-ये क्या। आपने कच्छे की दुकान शुरू कर दी। वह बोले हां, मैं भी नए जमाने के चलन में आ गया हूं। मैंने पूछा- लेकिन कच्छा, इसमें भला क्या धंधा होता होगा। आम भारतीय एक कच्छा खरीदता है तो फटने के बाद भी नहीं बदलता। बदलता तभी है जब पीछे दो बडे़-बडे़ यथार्थवादी छेद हो जाते हैं। वह बोले- नहीं, नहीं ये आम आदमी की दुकान नहीं है। ये विशिष्ट लोगों की दुकान है। आइए मैं आपको दिखाता हूं। वे मुझे दुकान के अंदर वाले हिस्से में ले गए। वहां बड़ी-बड़ी रैक्स थी, हर रैक पर एक लेबल चिपका था। पहली रैक पर लेबल चिपका था- देश भक्त कच्छा, उन्होंने बताया कि हाई लेवल के देशभक्तों के लिए ये कच्छे हैं। एक कच्छा निकाल कर उन्होंने दिखाया भी। उसमें अनेक रंग थे, लाल, पीला, काला, हरा, नीला। उन्होंने आगे बताया इस कच्छे को पहनने से सोई देश भक्ति जाग जाती है। हम आगे सरके। अगली रैक पर लिखा था- गरमवादी कच्छा। एक केसरिया रंग का कच्छा निकाल कर दिखाते हुए वे बोले- इसे हुल्लड़पंथी पहनते हैं। जिन्हें भी हो-हल्ला, तोड़फोड़, मारपीट, आगजनी आदि का शौक है वे इस कच्छे को पहनते हैं। उसके आगे की रैक पर लिखा था- नरमवादी कच्छा। एक सफेद कच्छा निकलाकर दिखाते हुए वह बोले- इसे अहिंसक लोग पहनते हैं और हर कहीं शांति-शांति चिल्लाते हुए शांति समितियां गठित करते रहते हैं। दंगों से पहले केसरिया और दंगों के बाद सफेद कच्छों की बिक्री बढ़ जाती है, ऐसा उनका कहना था। हम सामने वाली रैक की तरफ बढ़े। एक पर लिखा था-हाजमोला कच्छा। उन्होंने बताया कि ये कच्छा पहन कर आदमी कुछ भी हजम कर सकता है। एक भदेस सा कच्छा हाथ में लेकर वह बोले- इसे पहनो फिर लोहा, सीमेंट, पत्थर कुछ भी खाओ, सब हजम। इसी तरह मैंने वहां और भी लेवल देखे जैसे समाजवादी कच्छा, साम्यवादी कच्छा, नक्सलवादी कच्छा। बाहर निकलकर उन्होंने बताया कि अवसरानुकूल इन कच्छों की बिक्री थोक में होती है। फुटकर वह नहीं बेचते। वह बात कर ही रहे थे कि उनका मोबाइल घनघनाया। फोन पर कच्छों का ऑर्डर था। मुझसे मुखातिब होकर बोले- परसों कहीं धरना प्रदर्शन का आयोजन है। डेढ़ सौ कच्छों का ऑर्डर है। उन्हें खुश देखकर मैं वहां से चला आया, यह सोचता हुआ कि लोग कैसे-कैसे धंधे में लगे हैं। (NBT)